समझो कुछ गलत है
जब बचपन तुम्हारी गोद में आने से कतराने लगे
जब मां की कोख से झांकती जिंदगी बाहर आने से घबराने लगे
समझो कुछ गलत है
जब तलवारें फूलों पर जोर आजमाने लगे
जब मासूम आंखों में खौफ नजर आने लगे
समझो कुछ गलत है
जब ओस की बूंदों को हथेलियों पर नहीं हथियारों की नोंक पर ठहरना हो
जब नन्हें नन्हें तलवों को आग से गुजरना हो
समझो कुछ गलत है
जब किलकारियां सहम जाएं
जब तोतली बोलियां खामोश हो जाएं
समझो कुछ गलत है
कुछ नहीं बहुत कुछ गलत है
क्योंकि जोर से बारिश होनी चाहिए थी
पूरी दुनिया में
हर जगह टपकने चाहिए थे आंसू
रोना चाहिए था ऊपर वाले को
आसमान से
फूट फूटकर शर्म से झुकनी चाहिए थी इंसानी सभ्यता की गर्दनें
शोक नहीं सोच का वक़्त है
मातम नहीं सवालों का वक़्त है
अगर इसके बाद नहीं सर उठाकर खड़ा हो सकता है
इंसान तो समझो कुछ गलत है.
– प्रशुन जोशी